Amreek-Sukhdev restaurant Delhi : दो भाइयों के झगड़े में कैसे खुला दिल्ली के मुरथल में मशुहर अमरीक-सुखदेव दा ढाबा ? आए जानें इस 58 साल पुराने ढ़ाबा की कहानी
Amreek-Sukhdev restaurant Delhi : कभी आप दिल्ली-एनसीआर गए हो या फिर रहते हैं तो मुरथल के अमरीक सुखदेव ढाबे के यहां पराठे जरूर खाए होंगे ! इस ढ़ाबे पर सातों दिन, 24 घंटे हजारों की भीड़ की पराठे खाने आती है। अमरीक-सुखदेव की प्रसीद्धी का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि, देश के तमाम राज्यों में हाईवे किनारे इसी नाम से मिलते-जुलते ढाबे खुल गए हैं। दिल्ली में ये प्रसिद्ध ढ़ाबा 68 साल पुराना ढ़ाबा है। ये कथा इंडियाज मोस्ट लिजेंड्री रेस्टोरेंट्स’ नामक बुक में प्रकाशित है ! जिस पर हमने कुछ अंशों पर टिप्पणी की, ताकि ढ़ाबा का इतिहासिक परिचय करवाया जा सके। आईए अब जानते हैं इस ढ़ाबे की असली कथा।
अमरीक-सुखेदव ढ़ाबे की शुरुआत की कथा
आपको जानकर हैरानी होगी अमरीक सुखदेव ढ़ाबे की शुरूआत दो भाईयों के झगड़े के कारण हुई थी। हाँ, इस ढ़ाबे की नींव दो भाइयों की लड़ाई के बाद रखी गई थी। इस ढ़ाबे की कथा की शुरुआत लुधियाना के मिलरगंज ईलाके से होती है, जहां सरदार लक्ष्मण सिंह एक ढाबा चलाते थे। उनका ढाबा ट्रक ड्राइवर्स के बीच खूब प्रसिद्ध था। किंतु, सरदार लक्ष्मण सिंह को एक समस्या थी, उनकी कोई संतान नहीं थी। बस उन्हें दिन-रात एक ही चिंता सताती कि, उनके बाद ढाबे को कौन संभालेगा?
दो भाइयों के झगड़े से खुला नया ढाबा
सरदार को संतान पैदा ना होने का मलाल अवश्य रहता था। लेकिन, सरदार लक्ष्मण सिंह की दो बहनें थीं ! जिसमें से एक बहन के 4 बेटे थे, उसके चार बेटों में से लक्ष्मण सिंह ने एक बेटे को गोद लिया ! जिसका नाम था प्रकाश सिंह। कुछ दिनों बाद उनकी दूसरी बहन ने भी अपने एक बेटे को गोद लेने की जिद पकड़ी। इसी प्रकार लक्ष्मण सिंह ने दूसरी बहन के एक बेटे लाल सिंह को भी गोद ले लिया। ऐसे में सरदार दोनों गोद लिये बेटों के साथ ढाबा चलाने लगे। लेकिन कुछ दिनों बाद ही दोनों चचेरे भाइयों के बीच लड़ाई शुरू हो गई।
इस लड़ाई के बाद सरदार लक्ष्मण सिंह ने सुझाव सूझा कि, वो प्रकाश को एक नई जगह ढाबा खोलकर देंगे और इस तरह सरदार ने जगह की तलाश शुरू कर दी। सरदार ने इस तलाश में एक ट्रक ड्राइवर्स से सहायता मांगी। ड्राईवर ने कहा कि, दिल्ली के बाहर खाने-पीने की कोई ढंग की जगह नहीं है। यदि मुरथल के पास कोई ढाबा खुल जाए तो चल पड़ेगा।
58 साल पहले मुरथल में खुला नया ढ़ाबा
ड्राईवर के सुझाव पर सरदार लक्ष्मण सिंह मुरथल में आकर ढ़ाबा खोल दिया। बता दें कि, साल 1956 में प्रकाश सिंह मुरथल आ गए, उन दिनों मुरथल पंजाब का हिस्सा था। अब ये हरियाणा का हिस्सा है। उस जमाने में मुरथल में इक्का-दुक्का ढाबा तो थे, किंतु इतने मशहूर नहीं थे। लेखिका अपनी किताब में आगे लिखती है कि, मुरथल जीटी रोड पर पड़ता है, जो एशिया के सबसे पुराने ट्रेड रूट में से एक है। यह चिटगांव (बांग्लादेश) से लेकर काबुल (अफगानिस्तान) तक फैला हुआ है। ऐसे में हमेशा से यहां ट्रकों वगैरह की आवाजाही रहती है।
ढ़ाबे खोलने के लिए किराये पर लेनी पड़ी जमीन
सरदार लक्ष्मण सिंह के द्वारा लिए हुए गाेद बेटा प्रकाश सिंह ने मुरथल में ढाबे खोलने के लिए एक छोटी सी जगह किराए पर ली। यह जगह जहां अभी अमरीक-सुखदेव ढाबा है, उससे करीब 4 किलोमीटर दूर थी। प्रकाश और उनकी पत्नी इसी ढाबे में ऊपरी मंजिल पर रहने लगे और नीचे ढाबा चलाने लगे। क्योंकि उनकी पहले से तमाम ट्रक ड्राइवर से जान पहचान थी। इसलिए थोड़े दिनों में ही ढाबा चल पड़ा। प्रकाश सिंह ने उन दिनों ढ़ाबा में बहुत सिंपल मेनू रखा, जिसमें दाल, रोटी के अलावा तीन तरह के पराठे- आलू, प्याज और मिक्स।
धीरे-धीरे उनके ढाबा पॉपुलर हो गया और धंधा बढ़ने लगा, लेकिन इसका नुकसान भी हुआ. कुछ महीने बाद ही मकान मालिक दुकान का किराया बढ़ाने का दबाव बनाने लगा. इसके बाद प्रकाश ने वह दुकान छोड़कर खुद की जगह लेने फैसला किया. डिसूजा लिखती हैं कि 60 के दशक में प्रकाश सिंह ने पुराने ढाबे से थोड़ी दूर एक छोटी जमीन ली. वहां फिर से अपना ढाबा खड़ा किया. वहां भी ट्रक वालों की लाइन लगने लगी. क्योंकि खाने साथ-साथ इतनी जगह थी कि आराम से ट्रक पार्क कर सकें और रेस्ट कर सकें।
ढ़ाबे का नाम कैसे पड़ा अमरीक और सुखदेव ?
दरअसल, साल 1967 में प्रकाश सिंह को पहला बेटा हुआ, जिसका नाम रखा अमरीक। इसी प्रकार फिर दूसरे बेटे सुखदेव का जन्म हुआ। ऐसे में कई साल तक प्रकाश सिंह का जीवन और ढ़ाबा भी ठीक-ठाक चलता रहा। लेकिन साल 1982 में प्रकाश सिंह की जिंदगी में एक नया मोड़ के साथ बुरा दौर आता है। लेखिका आगे लिखती है कि, उस साल भारत में एशियन गेम्स हो रहे थे, गेम्स के लिए सरकार ने NH-1 के हाईवे को दो लेन से 4 लेन का करने का फैसला किया। परंतु प्रकाश सिंह के ढाबा के सामने जो पार्किंग वाली जगह थी, उसको लेन में ले लिया गया। इसके बाद उनके पास कोई जगह नहीं बची, मजबूरन उन्हें तीसरी बार अपना ठिकाना बदलना पड़ा। इस बार 300 रुपए महीने के किराये पर एक नई दुकान ली। जिसका नाम प्रकाश सिंह ने अपने दोनो बेटों का नाम अमरीक और सुखदेव (Amreek-Sukhdev restaurant Delhi) रख दिया और अगले 30 साल इसी दुकान में ढाबा चलता आ रहा है।
ढ़ाबे का नामकरण को स्पष्ट करने के लिए रुथ डिसूजा प्रभु अपनी किताब में लिखती हैं कि प्रकाश सिंह का ढाबा अच्छा-खासा मशहूर था। पर मजे की बात है कि साल 1985 तक ढाबे का कोई नाम ही नहीं था। साल 1985 में एक दिन उनके दोनों बेटों- अमरीक और सुखदेव ने कहा कि ” पापा, हमें ढाबे का कोई नाम रखना चाहिए ! प्रकाश सिंह ने जवाब दिया- नाम तो ऊपर वाले का होता है ” लेखिका आगे लिखती हैं कि, प्रकाश सिंह को लग रहा था कि ढाबे का नाम रखना अटपटा होगा। बाद में उन्होंने बेटों की जिद मान ली और दोनों बेटों का नाम मिलाकर ढाबे का नाम रखा ” अमरीक-सुखदेव ढाबा “